उस रात पढ़ा था
मैंने तुम्हें और तुम्हारी
प्रेम कविताएं को!
और बनाकर उनकी कश्ती
बहा दिया था नदी में
क्योंकि मैं
देखना चाहता था
तुम और तुम्हारी
प्रेम कविताएं
नदी के हिचकोलों पर
तैरती हुई
कैसी दिखती है
लेकिन तुम लोटकर
नहीं आई
और मैं बैठा रहा
उस दिन तुम बिन
अकेले चुपचाप
नदी किनारे।
शायद तुम्हें और
तुम्हारी प्रेम कविताओं को
लहर मिल गई थी
और मुझे मिला था
तो सिर्फ अफसोस।।