ग़ज़ल : मत छेड़िये
बह्र - 2122 - 2122 - 212
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बीतते लम्हात को मत छेड़िये।।
फिर उन्हीं हालात को मत छेड़िये।। १
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फायदा तो कुछ नहीं, नुक़सान है
तेग से ज़ख़्मात को मत छेड़िये।। २
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मुल्क के हालात पर चर्चा करो
मुल्क में आफ़ात को मत छेड़िये।। ३
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हम वतन है क्या यही काफी नहीं
मज़हबी जज़्बात को मत छेड़िये।। ४
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बाजुएं दो काट दी भाई बना
बच गई सर-लात को मत छेड़िये।।५
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बाढ़ में सब बह गये है घर यहाँ
अब कभी बरसात को मत छेड़िये।।६
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जो गलत उसकी वकालत क्यूँ करो
बीच लाकर जात को मत छेड़िये।।७
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फूंक देते हैं शहर इस वास्ते
मिल रही खै़रात को मत छेड़िये।।८
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सब भले से लोग हैं 'नीरज' यहाँ
हाँ, मगर औक़ात को मत छेड़िये।।९
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क़ाफ़ीया-:
लम्हात- लम्हा का बहु
हालात- हाल का बहु
जख़्मात- जख़्म का बहु
आफ़ात- आफ़त का बहु
जज़्बात- भावनाएँ
सर-लात -
(भारत का उत्तर और दक्षिण भाग)
बरसात- बारिश
जात- जाति
ख़ैरात - दान
औक़ात - हैसियत
रदीफ़ - : "को मत छेड़िये
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नीरज आहुजा
यमुनानगर (हरियाणा)