"लहरें और चट्टान"
चट्टाने समेटती है,
रोकती है
विकराल विध्वंसक
रूप को
स्वयं के नष्ट होने तक।
लहरे करती है
प्रतिपादन
अपने स्वच्छंद
स्वरूप का।
कोई रुष्ट है
तो कोई पुष्ट है
दोनों ही अपनी प्रवृति
अपना सोच-विचार लिए
रहते हैं अनवरत
अपने कार्य पथ पर अडिग।
लहरें काटती है
पीटती है
हर पल हर क्षण।
चट्टाने सहती है
चुप रहती है
सकारात्मकता
लिए हुए
लहरों के प्रहार को
बना लेती है श्रृंगार अपना।
लहरों ने चट्टानों में
अवरोध देखा है
उसकी सूझबूझ
सहनशीलता, प्रेम और
सोच विचार नहीं देखा।
~नीरज आहुजा
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