मुक्तक : जैसे होती घरवाली
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कभी दिखेगा चाँद कटोरी, कभी दिखे जैसे थाली।
छिप जाता है गुस्से में यह, ओढ़ कभी छाया काली।
बदल बदल कर रूप दिखाता, नाच नचाता है मन को
मनमर्जी का मालिक है यह, जैसे होती घरवाली
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नीरज आहुजा
यमुनानगर (हरियाणा)