कुछ साल पहले।
मिलते थे रोज
एक दूजे से
हाँ, होता था आभास
प्रेम का।
अब नहीं मिलते
लेकिन प्रेम फिर भी
वैसा ही है,
और तुम भी तो
बिल्कुल नहीं बदली
वैसी ही हो
जैसे बिछड़ते समय
देखा था तुम्हे।
लेकिन मैं बदल रहा हूँ,
हर-पल, हर-क्षण
बदल रहा हूँ।
अब पहले की तरह
जल्दी से
शेव नहीं करता,
हफ्ता हफ्ता भर
यूँ ही बढ़ने देता हूँ
दाढ़ी अपनी।
पहले आईना देखकर
इत्मीनान से
बाल संवारता था,
अब नहीं।
अब आँखें बंद करता हूँ
और तुम्हारी यादों को
संवारता हूँ।
देर तक जागना,
देर तक सोना,
संडे हो या मंडे
मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।
न तुम्हारे आने की,
न तुम्हारे जाने की,
न तुमसे मिलने की,
अब किसी बात की
कोई फिक्र नहीं रहती।
मगर तुम
आज भी वैसी ही हो
जैसे कल थी।
वैसा ही जैसे तुम्हें
आख़िरी बार देखा था
शाम की दहलीज़ पर
खड़े होकर
हाथ हिला कर
मुझे अलविदा कहते हुए।
वही दुपट्टा,
वहीं सलवार कमीज,
वही बिखरी हुई लटो को
बार बार कान के पीछे
ले जाती हुई तुम्हारी तर्जनी,
और चेहरे पर
पसरी हुई उदासी
सब कुछ याद है मुझे।
हाँ, सब कुछ वैसा ही है।
क्योंकि स्मृतियां नहीं बदलती,
उनकी उम्र नहीं ढलती,
उनकी आदते, चेहरा
बिल्कुल वैसा ही रहता है
जैसे किसी लम्हे को
कैद कर लिया जाता है
कैमरे से तस्वीरों में,
और हम देखते है
उम्र के दो पड़ाव एक साथ
एक बदलता हुआ
तो दूसरा
समय को मात देता हुआ स्थिर।
आज और बीते हुए
कल के संगम का
जरिया... मात्र ये
स्मृतियाँ ही तो है
जिन्हें हम संजोए रखते है
हमेशा हमेशा के लिये खुद में।
नीरज आहुजा