"छुपते फिरते हैं"
छुपते फिर रहे हैं
अपनी सोच से
द्वंद से, विचारों से।
भाग जाना चाहते है
खुद से कहीं दूर,
किसी वीरान जगह पर
जहाँ देख न पाएं
ढूंढ न पाएं खुद को।
आँखें बंद कर लेना चाहते है
और दबा देना चाहते है
मन में कौंधते हुए
सवालों को
अंतर्द्वंद को
जैसे दबा दी जाती हैं
बहुत सी खबरें अक्सर
सनसनी फैलने के डर से
शहर को बचाने के लिए।
बस इसी तरह
मस्तिष्क को भय और
आतंक के माहौल से
बचाने का एक तरीक़ा
यह भी है कि
होने दिया जाए
जो हो रहा
और उसे ही
अपनी नियती मानकर
ऐसे रहें जैसे कि कुछ
हुआ ही ना हो।
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नीरज आहुजा
स्वरचित