मुक्तक : कोरोना में कालाबाज़ारी
एक गयी दूजी है सर पर, तीजे की तय्यारी है।
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नाम नहीं रुकने का लेती, कैसी यह बीमारी है।
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उस पर महँगी बिकती साँसों , वाला गंदा खेल चला
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पता नहीं कोरोना भारी, या कालाबाज़ारी है।
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नीरज आहुजा
यमुनानगर (हरियाणा)
बिल्कुल सही लिखा। यही हो रहा है जब से कोरोना ने कदम रखे। और ऊपर से आपदा में अवसर तलाशने वालों ने भी कोई कमी नहीं रखी।
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