वो बिकेगी बाजारों में
त्योहारों में
घर लाई जाएगी।
फिर भेंट चढ़ेगी पड़ोसी को,
रिश्तेदारों में, और
जान पहचान वालों में
मेल मिलाप स्वरूप।
दो पल के लिए मेज की
शोभा बनेगी,
फिर उठाकर किसी और सफर पर
भेज दी जाएगी।
मेहमान आएंगे
खाएंगे काजू, बादाम, पिस्ता।
कोई नहीं चखेगा
स्वाद उसका।
जिल्लत और अपमान
सहती सहती हुई,
दर दर की ठोकरें खाकर,
लपेट कर किसी थैले में
रख दी जाएगी,
रसगुल्लों और मुरमुरे संग
सहवास करने के लिए।
आएंगे भिक्षुक या चौकीदार
जो भी, दे दिया जाएगा
वही थैला उनको।
कभी इधर से उधर,
तो कभी उधर से इधर
धकेली दी जाती है हर घर से
धिक्कार कर, दर बदर की
ठोकरें खाने के लिए ।
वो "सोन पापड़ी" है साहब
उसकी कोई इज्जत नहीं होती।
उसका कोई घर भी नहीं होता।
~नीरज आहुजा
स्वरचित रचना
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