रविवार, 20 सितंबर 2020

मुक्तक : अकेला आदमी घर का - Akela aadami ghar ka

मुक्तक : अकेला आदमी घर का

Neeraj kavitavali

बह्र-1222 1222 1222 1222

ज़मीं  छत और  दीवारें, वज़न  लगता  नहीं  भारा

अकेला  आदमी   घर   का, उठाता   बोझ है सारा

बदलती रुत भले जितनी, नहीं थकते कदम इसके

किसी दर पर नहीं अटका, लगा हिम्मत का है नारा

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नीरज आहुजा 

1 टिप्पणी:

  1. गधा बन गया है। पढ़ा लिखा हो या अनपढ़ घर का बोझ आदमी को ही उठाना पड़ता है।

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